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‘उत्साह‘ एक आह्वान गीत है जो बादल को संबोधित है। बादल निराला का प्रिय विषय है। कविता में बादल एक तरफ़ पीड़ित-प्यासे जन की आकांक्षा को पूरा करने वाला है, दूसरी तरफ़ वही बादल नई कल्पना और नए अंकुर के लिए विध्वंस, विप्लव और क्रांति चेतना को संभव करने वाला भी। कवि जीवन को व्यापक और समग्र दृष्टि से देखता है। कविता में ललित कल्पना और क्रांति-चेतना दोनों हैं। सामाजिक क्रांति या बदलाव में साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, निराला इसे ‘नवजीवन’ और ‘नूतन कविता’ के संदर्भो में देखते हैं
‘अट नहीं रही है’ कविता फागुन की मादकता को प्रकट करती है। कवि फागुन की सर्वव्यापक सुंदरता को अनेक संदर्भोमें देखता है। जब मन प्रसन्न हो तो हर तरफ़ फागुन का ही सौंदर्य और उल्लास दिखाई पड़ता है। सुंदर शब्दों के चयन एवं लय ने कविता को भी फागुन की ही तरह सुंदर एवं ललित बना दिया है।
पाठ का सार
उत्साह
उत्साह एक आह्वान गीत है, जिसके माध्यम से कवि ने बादल को संबोधित किया है। बादल निराला का प्रिय विषय है। कविता में बादल एक तरफ़ पीड़ित-प्यासे जन की अभिलाषा पूरा करने वाला है, तो दूसरी तरफ़ वही बादल नई कल्पना और नए अंकुर के लिए विप्लव, विध्वंस और क्रांति चेतना को संभव करने वाला भी है। कवि जीवन को व्यापक दृष्टिकोण से देखता है। कविता में ललित कल्पना और क्रांति-चेतना दोनों हैं।
सामाजिक क्रांति या सामाजिक परिवर्तन में साहित्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, निराला इसे ‘नवजीवन’ और ‘नूतन कविता’ के संदर्भो में देखते हैं। कवि निराला ने बादल के माध्यम से मानव को प्रोत्साहित किया है, उसके उत्साह को प्रेरित किया है।
काव्यांश का अर्थ
बादल गरजो!-
घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ!
ललित ललित, काले घुघराले,
बाल कल्पना के-से पाले,
विद्युत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले!
वज्र छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो-
बादल,गरजो!
शब्दार्थ
- गरजो-गर्जना करो।
- घर-घेर-घिर-घिरकर।
- घोर-भयावह।
- गगन-आकाश।
- धाराधर-बादल।
- ललित-सुंदर।
- विद्युत छबि-बिजली की आभा।
- उर-हृदय।
- नूतन-नई।
अर्थ
कवि निराला जी उत्साह और क्रांति के प्रतीक रूप बादल को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि तुम अपनी भयावह गर्जना करो और मनुष्यों में नई चेतना भर दो।हे बादल! संपूर्ण आकाश को घेर कर, भयानक गर्जना करो और बरसो। तुम सुंदर और काले-धुंघराले बालों वाले हो। तुम बाल कल्पनाओं को लिए हुए हो।
तुम्हारे हृदय में बिजली की आभा है। तुम नया जीवन देने वाले हो। तुम्हारे अंदर वन जैसी अपार शक्ति है। तुम इस संसार में नई चेतना भर दो और गरजो; और अपनी गर्जना से जन चेतना में विप्लव और क्रांति को जन्म दो।
विकल विकल, उन्मन थे उन्मन
विश्व के निदाघ के सकल जन,
आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन!
तप्त धरा, जल से फिर
शीतल कर दो-
बादल, गरजो!
शब्दार्थ
- विकल-परेशान, उद्विग्न ।
- उन्मन-अनमनापन का भाव।
- निदाघ-गर्मी।
- सकल-सब, संपूर्ण ।
- अज्ञात-जिसका पता न हो।
- अनंत-जिसका अंत न हो, आकाश ।
- घन-बादल ।
- तप्त-तपती हुई। ध
- रा-धरती।
- शीतल-ठंडा।
अर्थ
कवि के अनुसार गर्मी से परेशान अनमने मनुष्यों के हृदय में बादलों ने बरसकर शीतलता प्रदान की। कवि कहता है, हे बादल! इतने बरसो, गरजो कि निरंतर बढ़ती हुई गर्मी से विश्व के संपूर्ण जन, जो अनमने उदासीन हैं, उद्विग्न हो रहे हैं, वे सब शीतलता का अनुभव करें।
ऐसे समय में आकाश में अज्ञात दिशा से आकर गर्मी से तपती धरा को बरसकर अपने शीतल जल से शीतल कर दो। बादल! खूब बरसो, खूब गरजो ताकि पीड़ित जन-सामान्य को सुख का अनुभव हो, परिवर्तन का आभास हो।
अट नहीं रही है
अट नहीं रही है कविता फागुन की मादकता को प्रकट करती है। कवि फागुन की सर्वव्यापक सुंदरता अनेक संदर्भो में देखता है। जब मन प्रसन्न हो तो हर तरफ़ फागुन का ही सौंदर्य और उल्लास दिखाई पड़ता है। सुंदर शब्दों के चयन एवं लय ने कविता को भी फागुन की ही तरह सुंदर एवं ललित बना दिया है। कवि फाल्गुन-मास के सौंदर्य से इतना अभिभूत है कि उसे फाल्गुन-मास की आभा समाती हुई नहीं दिखाई दे रही है। चारों ओर फाल्गुन-मास में प्रकृति का सौंदर्य-ही-सौंदर्य बिखरता हुआ दिखाई दे रहा है।
कवि ने फाल्गुन-मास का मानवीकरण कर दिया है। फाल्गुन-मास साँस ले रहा है, साँस लेता है तो अपनी सुगंध भर देता है। इतना ही नहीं, आकाश में भी सुगंध पर (पंख) लगाकर उड़ जाती है। कवि इस मास के सौंदर्य-दर्शन से अपनी आँखें हटा नहीं पा रहा है। पेड़ों की डालियाँ नए पत्तों से लदी हुई हैं। उन पेड़ों पर कहीं-कहीं लाल पत्तियाँ दिखाई दे रही हैं। फाल्गुन के हृदय पर मंद सुगंध बिखेरती हुई पुष्पों की मालाएँ पड़ी हुई हैं। ऐसे फाल्गुन-मास की शोभा कहीं समा नहीं रही है
काव्यांश का अर्थ
अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।
कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।
पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में
मंद-गंध-पुष्प-माल,
पाट-पाट शोभा-श्री
पट नहीं रही है।
शब्दार्थ
- अट-समाना।
- आभा-चमक ।
- फागुन-फाल्गुन माह ।
- लदी-बोझिल ।
- उर में-हृदय में ।
- मंद-गंध-धीरे-धीरे बहती हुई सुगंध।
- पुष्प-माल-फूलों की माला।
- पाट-पाट-जगह-जगह।
- शोभा-श्री-सौंदर्य से भरपूर।
- पट नहीं रही है-समा नहीं रही है।
Also read
अर्थ
फाल्गुन-माह के सौंदर्य में डूबे हुए कवि को सर्वत्र फाल्गुन का उल्लास-ही-उल्लास दिखाई देता है। प्रकृति का उन्माद कहीं समाता हुआ नहीं दिखाई देता है।कवि फाल्गुन से कह रहा है कि हे फाल्गुन! जब तुम श्वास लेते हो तो अपनी छोड़ती हुई श्वास के साथ सुगंध से चारों और प्रसन्नता भर देते हो। पर्यावरण श्वास के साथ महक उठता है। इतना ही नहीं अपनी सुगंध में पर (पंख) लगाकर आकाश में उड़ जाते हो, जिससे आकाश भी सुगंधित हो उठता है।
कवि सौंदर्य से भरपूर फाल्गुन-माह के सौंदर्य से अभिभूत होकर उसे निरंतर निहारता है। वह
सौंदर्य-दर्शन से अपनी दृष्टि को हटा पाने में असमर्थ हो गया है। वह देख रहा है कि नव-पल्लवों से लदी पेड़ों की शाखाओं पर कहीं हरी-हरी पत्तियाँ हैं तो कहीं नव-प्रस्फुटित लाल-लाल कोमल पत्तियाँ दिखाई दे रही हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि फाल्गुन के हृदय पर मंद-मंद गंध को बिखेरती हुई पुष्प-माला पड़ी हुई है। इस तरह सौंदर्य से भरपूर फाल्गुन की शोभा सब जगह इतनी फैल रही है कि कहीं भी समा नहीं पा रही है।
Last Lines
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